चिराग पासवान के पीछे हटने से पिट गई तेजस्वी यादव की चाल, ठंडे पड़े तेवर
आलोक मिश्र
BJP का फोकस उन दस जिलों में है, जहां उसे एक भी सीट नहीं मिली है। अब इसे मौसम का असर कहा जाए या आत्मावलोकन का, कि बात-बात में भड़कने वाले तेजस्वी यादव के तेवर अब कुछ ठंडे पड़ते लग रहे हैं। चुनाव में करीबी हार के बाद जिस तरह के उनके तेवर थे, उससे लग रहा था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के खिलाफ ताल ठोकने के किसी भी मौके को वह नहीं छोड़ेंगे।
संख्या में कम होने के बावजूद विधानसभा अध्यक्ष के लिए महागठबंधन का प्रत्याशी उतार उन्होंने इसका संकेत भी दिया था। पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन से रिक्त हुई राज्यसभा सीट के लिए भी वे दो-दो हाथ करने के लिए तैयार बैठे थे।
राजग के खिलाफ रामविलास की पत्नी रीना पासवान को समर्थन करने की चाल उन्होंने चली, पर चिराग के पीछे हटने से उनकी यह चाल, चलने से पहले ही पिट गई और भाजपा के सुशील मोदी राज्यसभा के लिए निíवरोध निर्वाचित हो गए।
बिहार में राजनीतिक दृष्टि से यह पखवाड़ा काफी गरम रहा। करीब 51 वर्ष की परंपरा दरकिनार कर महागठबंधन ने विधानसभा अध्यक्ष पद के लिए अपना प्रत्याशी उतार दिया। विधानसभा के पहले सत्र में नीतीश-तेजस्वी का जबरदस्त वाकयुद्ध हुआ।
इसके बाद आंकड़े न होने के बावजूद तेजस्वी राज्यसभा के लिए रिक्त एक सीट बिना दंगल राजग को देने को तैयार नहीं थे। इसके लिए उन्होंने चिराग के नीतीश विरोध को भुनाने का मन बनाया, लेकिन उनकी दाल नहीं गली तो वह पीछे हट गए।
अंदरखाने की खबर यह भी है कि खुद लालू यादव भी महागठबंधन का प्रत्याशी उतारने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव में जोड़तोड़ के लिए भाजपा विधायक ललन पासवान को गया उनका एक फोन पहले ही काफी फजीहत करा चुका था।
इस कारण से जेल में उनकी सुविधाएं भी छिन गई थीं। अब शुक्रवार को सुविधाएं मिलने एवं 11 दिसंबर को जमानत पर होने वाली सुनवाई को लेकर भी वे नहीं चाहते थे कि इसका कोई प्रतिकूल असर उस पर पड़े।
राजग से अलग होकर चुनाव लड़े चिराग का हश्र अब सबके सामने है। पिछली बार की दो सीटें सिमट कर एक रह गई। उनका नीतीश विरोध, जदयू की सीटें जरूर कम करा गया, लेकिन नीतीश कुमार को गद्दी से नहीं उतार पाया।
चिराग जानते थे कि पिछली बार भाजपा-जदयू के सहारे रामविलास को मिली राज्यसभा की सीट इस बार भाजपा चाहकर भी जदयू विरोध के कारण उन्हें दे नहीं सकती थी।
ऐसे में महागठबंधन के सहारे हारी बाजी को खुलेआम हारने के चक्कर में वह नहीं पड़े। इससे एक तो भाजपा से उनकी दूरी और बढ़ती, साथ ही उनके वोटों में तेजस्वी की सेंध लगने का भी खतरा था। इसलिए इससे किनारा कर वे फिर से संगठन खड़ा करने में जुट गए हैं।
इस बार वे सतर्क हैं और इसलिए उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से कह दिया है कि छह माह तक नीतीश के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलना है। उनके टूटे मनोबल को बढ़ाने के लिए वे बार-बार यही कह रहे हैं कि सीट भले ही एक मिली, लेकिन वोट जरूर 24 लाख मिल गए हैं। अब उनका सारा जोर पार्टी के पुनर्गठन पर है।
इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा ग्राफ भाजपा का बढ़ा। 74 सीटें आने पर लगने लगा था कि अब भाजपा अपना चेहरा बदलेगी।
हुआ भी वही, 15 साल से नीतीश के साथ उपमुख्यमंत्री रहे सुशील मोदी, कद्दावर नेता नंदकिशोर यादव और प्रेमकुमार सरीखे नेता किनारे कर मंत्रिमंडल में नए चेहरों को उसने मौका दिया। तब लगा था कि वरिष्ठ नेताओं के दिन लद गए हैं, लेकिन सुशील मोदी को राज्यसभा भेज उसने संकेत दे दिया कि नए-पुराने के समीकरण साध कर ही वह आगे बढ़ने वाली है। सुशील मोदी के केंद्र में मंत्री बनाए जाने की भी चर्चा जोरों से है।
सुशील मोदी के राज्यसभा जाने से इन नेताओं की भी आस बंध गई है कि दिन अभी लदे नहीं हैं। उनके दरबार से सिमटती जा रही भीड़ फिर से लौटने लगी है। इससे भारतीय जनता पार्टी की टीम अब और उत्साहित है। अब उसका फोकस उन दस जिलों में है, जहां उसे एक भी सीट नहीं मिली है।