भारतीय सेना की स्पेशल फोर्सेज (पैराशूट कमाण्ड़ो) की अनकही कहानी।

भारतीय सेना की स्पेशल फोर्सेज (पैराशूट कमाण्ड़ो) की अनकही कहानी।

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जिन लोगों ने इस गाथा को अंजाम दिया उन लोगों ने कभी अपना डंका नहीं बजाया

लेखक——कर्नल अवधेश कुमार, पैराशूट स्पेशल फोर्सेज

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यह एक ऐसे जांबाज टोली की गाथा है जो 1971 की शीतकालीन रात की कड़कड़ाती ठंढ में चुपचाप दुश्मन की चौकियो के पीछे घुसपैठ करने के बाद उसे सबक सिखाने में पूरी तरह सफल हुए थे। अगली सुबह की किरण के फैलने के पहले ही पाकिस्तान की खौफनाक योजना नेस्तनाबूद हो चुकी थी। योजना के अनुसार दुश्मन हमारे पूंछ- राजौरी सेक्टर को बाकी भारतीय सेना से अलग थलक करके और उस पर कब्जा करके, पाकिस्तान का हिस्सा बनाने का इरादा रखता था। उनकी मात ही नहीं हुई उलटे उनकी अपनी ही जमीन उनसे छिन गयी।

यह कथा है और BRAVO ग्रुप, 9 वें बटालियन कमांडो पैराशूट रेजिमेंट की। 1965 के युद्ध संचालन के दौरान मेघ दूत फोर्स के निष्पादन से सीखे सबक के आधार पर, 1 जुलाई 1966 को लेफ्टिनेंट कर्नल मेघ सिंह, वीर चक्र के नेतृत्व में इस विशेष इकाई का जनम हुआ। मेघ दूत फोर्स के जवानों ने इस नयी बटालियन की नींव रखी और वे मौजूदा पैराशूट रेजिमेंट का एक हिस्सा बन गये। उस समय इस शौयॅ पूणॅ रेजिमेंट में आठ मानक पैराशूट इन्फैंट्री बटालियन पहले से शामिल थे। जून 1967 में, 9 को दो छोटे आकार की इकाइयों में विभाजित किया गया और इस तरह ले.कर्नल N S UTHAYA के कमान में 10 पैरा कमांडो का जन्म हुआ। 1969 में इन दोनों यूनिटों ने कठिनतम परीक्षण अभ्यासों की श्रृंखला को सफलतापूर्वक पार किया और सर्वोच्च कमांडर यानि भारत के राषटृपति ने इनको बलिदान के निशान से सम्मानित किया और कमांडो की उपाधि दी। इस प्रकार 1971 के युद्ध की पूर्व संध्या पर हमारे पास दो युवा, अत्यधिक प्रेरित कमांडो बटालियन थे यद्यपि अभी भी वे युद्ध की आग में तप कर महारथी नहीं बने थे। 9 पैरा कमांडो जम्मू-कश्मीर के पहाड़ों के लिये था और 10 पैरा कमांडो राजस्थान के रेगिस्तान के लिए। आज इनका सही नामकरण 9 पैरा स्पेशल फोर्सेज और 10 पैरा स्पेशल फोर्सेज हैं और वे अभी भी पैराशूट रेजिमेंट के अंग हैं। प्रत्येक बटालियन के तीन पूर्ववर्ती Group अब ALPHA टीम, BRAVO टीम और CHARLIE टीम कहलाते हैं। Group के नीचे टीम होते थे और टीम के नीचे सबटीम। अब टीम के नीचे TROOP होते हैं और उनके नीचे स्क्वाड। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि कठिन प्रोबेशन में सफलीभूत होने के बाद 31 जुलाई1978 में, मुझे 6 टीम का टीम कमांडर नियुक्त किया गया लेकिन नए नामों के कारण, 13 साल बाद स्टाफ कालेज का कोसॅ करके यूनिट वापस आने पर जून1991 मुझे ALPHA टीम कमांडर बनाया गया। दो साल बाद यूनिट से बाहर HQ स्पेशल फोसॅसेज में पोस्टिंग जाते वक्त भी मैं एक टीम कमांडर ही था।

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सियालकोट सेक्टर में तैनात पाकिस्तान के 15 इन्फैंट्री डीवीजन के जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल अबिद अली जैदी को पूणॅ आत्म-विश्वास था कि उनकी फौज वक्त आने पर DAGGER के इलाके से भारत के अन्दर गहरी पैठ करने में आराम से कामयाब हो जाएगी। जब उनके डीवीजन को 8 टैंक ब्रिगेड की कमान भी सौंपी गई तब तो जनरल साहब की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब इस ब्रिगेड के टैंक हमले का नेतृत्व करके “ DAGGER” की धार को और भी तेज करने का दम खम रखते थे। पाकिस्तान GHQ का सपना था अखनूर ब्रिज पर एक शानदार नाश्ते का आयोजन करना। लेकिन सितंबर 19 65 में मेजर जनरल अख्तर हुसैन द्वारा बनाए प्लान ऑपरेशन GRAND SLAM के अन्तिम वक्त फेल होने से पाकिस्तानी सपना एक सपना ही रह गया था। अब समय आ गया था उस सपने का साकार होने का, निश्चित रूप से इस बार जैदी के हाथों सपना सच साबित होने वाला था। जनरल जैदी को केवल एक चिंता सता रही थी कि, कही अखनूर पर हमला करने का कार्य जनरल इफ्तिखार को नहीं सौंप दिया जाए, जो 23 इन्फैंट्री डिवीजन के कमांडर थे और भारत के छम्ब इलाके के विपरीत इलाके में तैनात थे।

DAGGER वास्तव में अखनूर के दक्षिणी भाग में पाक क्षेत्र का एक संकीर्ण हिस्सा है जो भारत में चाकू की तरह घुसा हुआ था। यह मूल रूप से चेनाब नदी- और उसकी सहायक नदी चंद्र भगा के बीच एक छोटा सा द्वीप है जिसका क्षेत्रफल लगभग 170 वर्ग किलोमीटर है। द्वीप का मुख्य आधार वाडी तवी नदी के किनारे पर स्थित है और आगे जाकर काछी मंडल नाला के पास द्वीप का सबसे कम चौड़ा हिस्सा है जो उत्तर की ओर बढ़ते हुए और कम होते जाता है। फिर यह एक छोटे से सिर के आकार का हो जाता है और अंत में नीचे एक चोंच की तरह संकुचित हो जाता है। नक्शे पर देखने में यह एक मुरगे की गरदन बतौर चोंच दिखता है। सियालकोट की तरफ से इस पाकिस्तानी एनक्लेव में आने के लिये चेनाब नदी पर दो प्रमुख स्थल है सैदपुर फेरी और गोंडाल फेरी। अन्य दो स्थान है मजवाल और गंगवाल। DAGGER इलाके की एक और खासियत है कि वह सीधा अखनूर पुल पहुँचने का सबसे छोटा रास्ता है। जम्मू सेक्टर की रक्षा के लिए अखनूर पुल एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। तेज बहते चेनाब नदी को पार करने के लिए अखनूर ब्रिज ही एक मात्र साधन है। अतः DAGGER क्षेत्र अखनूर पर किसी भी सफल पाकिस्तानी आक्रमण के लिए सबसे शार्टकट मार्ग प्रदान करता था।अगर एक बार पुल पर कब्जा कर लिया गया तो जम्मू के लिए मार्ग खुल जाता और पाकिस्तानी टैंकों के लिए लगभग एक घंटे का ही रास्ता रह जाता। इससे पूरा पूंछ-राजौरी क्षेत्र भारत से कट जाता और छंब-जौरीयान क्षेत्र की तरफ से भी पूरी तरह पाकिस्तान सेना का भारत में घुसने का रास्ता साफ हो जाता।एक ही झटके में, भारतीय सेना द्वारा 1948 में इतनी मेहनत से हासिल किया गया विजय पताका जमीन पर होता। ब्रिगेडियर मुहम्मद उस्मान, महावीर चक्र,, कमांडर 50 (स्वतंत्र) पैराशूट ब्रिगेड, तथा अन्य पैराट्रूपर्स और भारतीय सेना के वीर जवानों की शहादत पूरी तरह से बेकार हो जाती।

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ब्रिगेडियर शशि खन्ना

DAGGER इलाके में अभी भी अंधेरा था, लेकिन भारत की ओर आकाश के क्षितिज पर लालिमा छाने लगी थी। हालांकि किसी गाड़ी की लाईट नहीं दिखाई दे रही थी, पर कुछ हल्के वाहनों के इंजनों की बेहद हलकी आवाज बीच बीच में ध्यान देने पर सुनी जा सकती थी। लगभग 20 मिनट पहले, 2 / LT शशि भूषण खन्ना अचानक एक गहरी नींद से यकायक बाहर निकल आए थे और सेकंड्स में पूरी तरह चौकन्ने हो गए थे। अपने छठे इन्द्रिय की अहसास को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने जल्दी से अपनी दो Sub Team (आजकल इनको स्क्वाड कहा जाता है) को साथ लेकर भारतीय सीमा की ओर करीब 200 मीटर पर एक सड़क मोड़ के पास पहुंच कर मोरचा संभाल लिया। वर्तमान जगह पाकिस्तान के भीतर उसके DAGGER इलाके में अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित गोंडाल फेरी Crossing के पास था। 4 टीम के बाकी कमांडो फेरी इलाके में ही मोरचा संभाले हुए थे। इस प्रकार Lt शशी अपने 12 कमांडो के साथ सड़क के पास घात लगा कर बैठ गए और चुप चाप बिना हिले डुले इंतजार करने लगे। हालांकि हड्डियों को भी गलाने वाली ठंढ बढ ही रही थी, लेकिन कमांडोज अपनी देह पर कोई ठंड महसूस नहीं कर रहे थे क्योंकि उनकी दिल की धड़कन काफी तेज हो चली थी।

कैप्टन शशि खन्ना

2 / लेफ्टिनेंट शशी खन्ना, टीम कमांडर 4 टीम, BRAVO ग्रुप, 9 पैरा कमांडो,दोपहर 14:30 बजे, 6 दिसंबर अपनी टीम के साथ गोंडाल फेरी के पास पहुंच गए थे। 6 किलोमीटर दूर सैदपुर फेरी था जहां बाकी के BRAVO ग्रुप ने मोरचा संभाला हुआ था। शशी खनना सहित 33 कमांडो सरकंडा घास में अच्छी तरह छिपे हुए काफी नजदीक से दुश्मन की गतिविधियों का मुआयना करने लगे। आखिरकार टीम कमांडर के एक संकेत पर, पहली गोली स्नाइपर राइफल से लगभग 1550 बजे निकली थी। फेरी क्षेत्र की रक्षा करने वाले 10 पाकिस्तानी रेंजर्स पूरी तरह अचंभित हो गए थे और 1605 बजे तक उनमें से 6 पाकिस्तानी इस संसार को अलविदा कह चुके थे और बाकी 4 जवान बुलेट ट्रेन की गति से नदी पार करके, 16 किमी दूर सियालकोट की तरफ भाग निकले थे। रेंजसॅ के हथियार और उपकरणों वही रह गए थे कमांडोज के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज थी … एक मशहूर पाकिस्तानी चाय ब्रांड, टप्पल चाय के कई पैकेट। अपने drills के अनुसार कमांडो ने खुद को पहले इलाके और जमीन की बनावट अनुसार संगठित किया और पूरी तरह से छिपाव का भी ध्यान रखा। एक बार टीम के तैनात हो जाने के बाद टीम हवलदार, हवलदार बलदेव सिंह ने हर एक सदस्य के लिए चाय का आयोजन किया। लगभग 24 घंटे बिना किसी भी प्रकार के भोजन या चाय के बिना इस पेय का सब ने स्वागत किया। 5 दिसंबर की रात को पाकिस्तान में घुसने के लिए BRAVO ग्रुप ने छाती भर पानी वाले गहरी नदी को पार किया था। अतः जो भी पहले से पका खाना साथ में था वह बहुत गीला होकर खराब हो चुका था।

घात लगाए जमीन पर लेटे हुए, शशि खन्ना मानसिक रूप से चंडीगढ़ के रॉयल एन्फिल्ड के शो रूम में थे। दिसंबर 1969 में IMA देहरादून वे सीधे 9 में Probation के लिए पहुँचें थे और अब कुछ दिनों में वह कैप्टन बनने जा रहे थे। तब वह अपने सपने के मोटर साइकिल खुद अपने पैसों से खरीदने में सक्षम हो जाते। शो रूम की यात्रा के बाद, वह अपने पसंदीदा ढाबे में चले गए जहाँ वे अति स्वादिष्ट तंदूरी चिकन खा रहे थे। तभी उनके कंधे पर बगल में लेटे जवान ने थपकी दी और शशी साहब चौक कर वास्तविक दुनिया में लौट आए। अगले पल, तीन Willy जीप, बिना कोई लाइट के मोड़ के पास आते दिखे। खन्ना ने राकेट लाचंर फायर करने का आदेश फुसफुसाकर दिया और दूसरी ही पल एक धमाका हुआ और आगे वाली जीप आसमान में उठा और एक दूसरे धमाके के साथ नीचे गिरा। अगले कुछ मिनटों के लिए सभी 12 कमांडो बचे दो जीपों पर फायर करते रहे। इतनी भारी तादाद में फायरिंग से बाकी दोनों जीप आग की लपटों में घिर गए और धमाके से फट गए। अगले कुछ मिनटों के लिए पिन ड्रॉप चुप्पी छाया रहा। Lt शशी वाहनों का निरीक्षण करने के लिए अपनी जगह से उठने लगे लेकिन वे उठ नहीं पाए। अचानक वह बहुत ठंड महसूस करने लगे और उनके लिए सब कुछ एक धीमी गति फिल्म के समान चलने लगा। अपने कपड़ों पर उन्हें गीलापन महसूस हो रहा था और लग रहा था कि बांऐ कन्धे से कुछ रिसाव हो रहा है। फिर चीजें धुंधली होनी शुरू हो गई और आंखों के सामने अँधेरा छाने लगा। ठीक बेहोश होने के पहले एक आवाज जो लगा बहुत दूर से आ रही हो, सुनाई दी कि “साहिब को गोली लग गई है।

होश में आने पर Lt खन्ना ने देखा कि दोपहर हो चुका था और उनके कन्धे की पूरी तरह से पट्टी की हुई थी। सौभाग्य से गोली बिना किसी भी बड़े नुकसान के कन्धे से आर पार हो गई थी। उनको होश में देख 4 टीम 2IC सुबेदार दूनी चंद ने खनना साहब को बधाई दी एक सफल ambush के लिए जिसमें दुश्मन के एक अफसर और 11 जवान तथा तीन जीप का सफाया हो गया था। कमांडर को घायल होते देख, सुबेदार दूनी चंद ने तुरन्त कमान संभाल लिया था। मिनटों में First Aid देने के बाद, Lt साहब को उठा कर ambush पार्टी वापस फेरी इलाके के मोरचे पर आ गई थी। फिर साहब का अच्छी तरह से पट्टी किया गया और साथ में ग्रुप कमांडर मेजर नरेंद्र राठौड़ को रेडियो सेट पर सारी जानकारी दे दी गई थी। Ambush के 30 मिनट के अन्दर, पाकिस्तानी तोपो ने भयंकर गोला बाड़ी शुरू कर दी। इसके बाद भी पाक तोपखाने द्वारा गोंडाल फेरी साइट पर छिटपुट गोलीबारी चलती रही थी। 4 टीम अपने मोरचे पर डटी रही और स्थिति पर काबू रखा। हालांकि छिटपुट गोले कुछ और समय के लिए गिरते रहे। पूरी स्थिति शाम तक नाजुक बनी रही क्योंकि 8 कैवलरी के टैंकों का, जो लिंक अप फोर्स का हिस्सा था, उनका कोई अता पता नहीं था। अंत में 3/5 गोरखा राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल जगमोहन रावत, स्वयं गोरखाओं की एक कंपनी के साथ गोंडाल फेरी स्थान पर पहुंचने में सफल हुए। जैसे ही गोरखा कंपनी ने मोरचा संभालना शुरू किया कि भारी गोलाबारी फिर से शुरू हो गई। कर्नल रावत को अपनी दूसरी कंपनियों के पास वापस जाना था। अतः “शैलिंग” में एक break के दौरान, मेजर राठौर से बात करने के बाद, कर्नल रावत अपनी जीप में घायल Lt SBK के साथ वापस चल दिए। क्लासिक फिल्मी स्टाइल में तोप के गोले एक के बाद एक के बाद जीप के पीछे गिरते रहे जैसे की वे जीप का पीछा कर रहे हो। शाम में अंधेरा होने के पहले आखिरी रोशनी के समय 8 कैवलरी के टैंक भी वहाँ पहुँच गए। लगभग 48 घंटे के अंतराल के बाद गोरखा कंपनी के जवानों ने पैराशूट कमांडोज को पका भोजन खिलाया। गोरखाओं को धन्यवाद देने के बाद छिटपुट गोलाबारी के बावजूद कमांडोज आवश्यक नींद खींचने में मगन हो गए। मध्य रात्रि तक Lt SBK भी एक एम्बुलेंस ट्रेन में लेटे हुए जलंधर की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे।

8 दिसंबर को सुबह 1000 बजे, सुबेदार दुनी चंद के कमान में,4 टीम गोंडाल फेरी स्थान से सैदपुर फेरी के लिए रवाना हो गया और लगभग 1400 बजे BRAVO ग्रुप के साथ जा मिला।

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1971 में हमारे सैनिकों और अधिकारियों के उच्च मनोबल के बावजूद, पाकिस्तान को समय और हमले के स्थान को चुनने का फायदा मिला हुआ था। पूछ-राजौरी तथा छम्ब- अखनूर-जम्मू क्षेत्र में भारत पर बहुत ही अधिक दबाव बना हुआ था। किसी भी कीमत पर, कम से कम “डैगर” के इलाके से तो पाकिस्तान के किसी भी हमले हर हाल में रोकना था। इस बात को जम्मू क्षेत्र के लिए जिम्मेदार भारतीय 26 इन्फैन्ट्री डिवीजन के कमांडिंग जनरल अच्छी तरह से समझते थे। हालांकि अखनूर क्षेत्र पर मंडराते खतरे को काफी हद तक कम कर दिया गया था, क्योंकि अब उस इलाके की जिम्मेवारी एक नए डिवीजन …..10 इन्फैन्ट्री डिवीजन की थी। लेकिन सिफॅ इससे भारत को कुछ नहीं हासिल नहीं होने वाला था।उसके लिए जनरल के हिसाब से भारतीय सेना को सियालकोट की तरफ बढना चाहिए था। हालांकि जम्मू की रक्षा हर कीमत पर करनी थी और इसकी जिम्मेवारी 26डिवीजन के मिली हुई थी। इस भूमिका में तैनात 26 डिवीजन के एक एक ब्रिगेड समूह….. दमाना, जम्मू, मिरांसाहिब और सांबा में तैनात थे। रक्षात्मक भूमिका के बावजूद जनरल साहब हमेशा सियालकोट पर हमला करने का मन ही मन प्लान बनाते रहते थे। उनके अनुसार इस प्रकार के हमले से छम्ब — जौरियान क्षेत्र से पाकिस्तान को अपनी कुछ सेना हटानी पड़ती सियालकोट के बचाव के लिए। इस से यह निश्चित था कि छम्ब … जौरीयान क्षेत्र में पाकिस्तानी की भारी श्रेष्ठता और जमीनी बनावट का लाभ कम हो जाता।

मेजर जनरल Z C Bakshi, महावीर चक्र, वीर चक्र, विशिष्ट सेवा मैडल (1971 के लिए उन्हें परम विशिष्ट सेवा मैडल से सम्मानित किया गया और Lt जनरल के रूप में सेवानिवृत्त हुए) भारतीय सेना के सबसे ज्यादा decorated अधिकारी थे। उन्हें उनके साथी प्यार से जोरू के नाम से पुकारते थे। वे 1 5 कोर कमांडर, लेफ्टिनेंट जनरल सरताज सिंह, The Gunner द्वारा सौंपी गई भारी जिम्मेदारी को भलीभाँति महसूस करते थे लेकिन इस रक्षात्मक भूमिका उनको रास नहीं आ रही थी। उन्होंने अपने बॉस को काफी मनाने, समझाने का प्रयास किया कि उनकी डिवीजन को एक आक्रामक भूमिका दी जाये। उन्होंने विनती की भी, बहस भी किया और यहाँ तक की लड़ भी गए पर सरताज सिंह टस से मस नहीं हुए। जब सेना अध्यक्ष सैम बहादुर का जम्मू आगमन हुआ तो चीफ के समक्ष भी जोरू ने यह प्रस्ताव रखा भी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सैम ने स्पष्ट रूप से उनसे कहा था “जम्मू क्षेत्र में एक इंच भी जमीन खोना हमारे लिए सामरिक तथा राजनीतिक दृष्टि से आत्मघाती होगा अतः स्वीकार्य नहीं है। और इसलिए मैं आप पर अपना पूरा विश्वास जता रहा हूं और आप मुझे गलत साबित नहीं करेंगे “। सैम की तरफ से ज़ोरू को एक और संकेत मिला, “जब गुब्बारा ऊपर जायेगा तो पश्चिम की ओर हो सकता है कूच करने का काम 10 वीं डीवीजन के जनरल जसवंत सिंह द्वारा अखनूर के इलाके से किया जाए।

जनरल ज़ोरू ने अपनी हमले की योजना पर सोचने का काम कभी नहीं छोड़ा। जब भी उन्हें अपने कार्यालय में बैठने का मौका मिलता था, तो वह अधिकतर समय दीवार पर लगे हुए बड़े से मानचित्र की ओर देखते रहते थे। 15 नवंबर के आसपास, जब वह अपने कार्यालय में बड़े नक्शे को देख रहे थे कि टेलीफोन की घंटी बजी। यह कोर कमांडर से एक फोन था “ज़ोरू, आपको एक खुशखबरी दे रहा हूँ। मैं आपको जिंद्रा में रहने वाले कुछ “शरारती” लोगों को आवंटित कर रहा हूं। मेजर नरेंद्र राठौड़ और उनके जवान पहले ही जम्मू हवाई अड्डे में डेरा डाले हुए हैं। आप उनसे क्या काम लेंगे अपनी कल्पना का प्रयोग करें “। अचानक जनरल ज़ोरू अत्यधिक खुश हो गए थे। वह जिंद्रा में रहने लोगों को जानते थे बहुत अच्छी तरह से। वह जगह जम्मू से लगभग 30 किलोमीटर दूर जम्मू – उधमपुर के बीच में स्थित था। जनरल साहब के चेहरे एक चमक आ गई थी और अब उनके मन में पहले से चल रहा प्लान एक ठोस आकार लेने लगा…………Dagger का आकार अब उनको एक मुर्गे के गरदन जैसा दिखने लगा। जोरू ने अपने जनरल स्टाफ ऑफिसर को बुलाया और कहा कि वह तत्काल प्रभाव से CHICKEN NECK को मड़ोड़ने का प्लान बनाना शुरू कर दें। फिर उन्होंने अपने ADC से कहा कि पता लगाओ मेजर राठौड़ 9 पैरा का, जो कहीं जम्मू एयरबेस के अंदर हैं और उन्हें फौरन डिवीजनल मुख्यालय में मेरे ऑफिस में रिपोर्ट करने के लिए कहो।

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मेजर नरेंद्र सिंह राठौर या जिमी, जयपुर, राजस्थान के वीर राजपूत योद्धा थे। वह हमेशा शांत और संयत रहते थे। 1964 में वे सिख रेजिमेंट में कमिशनड हुए थे और 65 की युद्ध के एक अनुभवी योद्धा थे। उन्होंने 9 कमांडो के स्थापना के तुरंत बाद Volunteer किया था और अब वे BRAVO ग्रुप कमांडर थे। वह अपने काम को एक व्यवस्थित तरीके से करते थे। अपने अधीनस्थों को प्रारंभिक कामकाज बताने के बाद आम तौर पर हस्तक्षेप नहीं करते थे। वह सभी चल रही चीजों पर नजर रखते थे और जहां कहीं भी आवश्यक होता था वहां सहायता जरूर देते थे। उनके टीम कमांडरों को नियमों के भीतर रह कर अपने काम को करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। BRAVO ग्रुप के लिए वे एक पिता समान थे, वह एक सच्चे राजपूत सरदार थे।

नवंबर के पहले हफ्ते में BRAVO ग्रुप जिंद्रा से जम्मू हवाई अड्डे के अन्दर स्थानांतरित हो गया था। कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल ओ पी सभरवाल, सेना मैडल, ने जिमी को हेलिबोर्न मिशन के लिए पूणॅ रूप से तैयारी करने को कहा था, जिसका कहीं दुश्मन के इलाके में होने का अंदेशा था। अब जम्मू में स्थित वायु सेना हैलीकाप्टर इकाइयों के चलते, BRAVO ग्रुप ने सभी आवश्यक हवा और जमीनी अभ्यासों में महारत हासिल कर लिया था और वे किसी भी स्थिति के लिए तैयार थे।

जनरल जोरू ने अपने ऑफिस में खड़े मेजर राठौड़ का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। जनरल ज़ोरू के दिल में पैराट्रूपरों के लिए वाकई एक उच्च स्थान था। 1965 में वे ब्रिगेड कमांडर थे जिसके तहत मेजर रणजीत सिंह दयाल, महावीर चक्र, 1 पैरा बटालियन, ने 65 युद्ध के दौरान हाजीपीर गली पर कब्जा किया था। जनरल जोरू 9 पैरा से अनजान नहीं थे। काफी पहले में धनसाल इलाके में [9 के रहने का स्थान जिंद्रा से पहले ] जो 6 किमी पहले है गांव जिंद्रा की तरफ जाने के रास्ते पर है, जाकर 9 पैरा से मिल चुके थे। उस वक़्त कर्नल जी पी त्रिपाठी, 9 पैरा कमांडो के कमांडिंग ऑफिसर थे। डीवीजन की कमान सँभालने के बाद, उन्हें फिर एक मौका मिला था कर्नल सभरवाल और उनके अधिकारियों के साथ जिंद्रा में एक शाम बिताने का। इसके अलावा लगभग हर पखवाड़े जम्मू शहर में उनके सैन्य पुलिस का 9 पैरा के साथ कोई न कोई टकराव जरूर हो जाता था। इसकी रिपोर्ट जनरल साहब को और भी मिर्च मसाला लगा कर दी जाती थी। इसलिए उन्हें आश्चर्य हुआ कि BRAVO ग्रुप पिछले 20 दिनों से जम्मू एयरफील्ड में डेरा डाले हुए था लेकिन वह इस तथ्य से अनजान थे और उन्हें इसकी भनक तक नहीं मिली थी।राठौड़ ने कहा, “सर, अब हम लोग आपरेशन के लिए तैनात हैं, इसलिए बिना शोर शराबे के चुपचाप बैठे हुए है “।

जनरल साहब अपनी कुरसी छोड़, दीवाल पर लगे मानचित्र के पास गए और पॉइंटर स्टिक लगाकर मेजर राठौड़ की ओर देखा। जिमी की प्रतिक्रिया हुई “सर, पाकिस्तानी फुकलियान क्षेत्र”। मैं बहुत खुश हूँ कि आप ने इसे DAGGER इलाका नहीं बोला। मुझे अगर मौका मिलता है, तो मैं सियाला और माराला हेड वर्क्स की ओर देखूंगा जो आपके ग्रुप के लिए एक प्रमुख कार्य बन सकता है। हालांकि, पहले मैं इस CHICKEN NECK SALIENT को समाप्त करना चाहता हूं और आप इस गर्दन को मड़ोड़ने में मेरी पूरी मदद करेंगे। 19इन्फैंट्री ब्रिगेड के साथ संयोजन करके, आप सैदपुर फेरी को जायेंगे जो दुश्मन के इलाके में लगभग 10 किलोमीटर अंदर है और उसको सुरक्षित करेंगे। सैदपुर फेरी के माध्यम से ही दुश्मन टैंकों और REINFORCEMENT तथा साजो सामान का आना होगा इससे उनकी संख्या और मजबूती बढ़ जाएगी। अतः उन्हें हर कीमत पर रोकना होगा। आप लोग इलाके की हवाई और जमीनी टोह सतर्कता पूर्वक ले सकते है। लेकिन इस दौरान हमारी सब बातचीत अपने आप पास ही रखें किसी तीसरे को भनक तक नहीं मिलनी चाहिए। अगर हम लोग इस हमले पर अमल करते है तो 19 ब्रिगेड आपके साथ संपर्क करेगा, आगे की प्लानिंग के लिए।

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2 / लेफ्टिनेंट वीरेन्द्र कुमार बाली, पिछली दो रातों से सो नहीं पाए थे। हालांकि बाहरी रूप से शांत दिखने के बावजूद, वह एक अत्यन्त ही चिंतित व्यक्ति थे। ब्रावो ग्रुप को घोर अँधेरे में, दुश्मन के सैदपुर फेरी क्षेत्र में खोए बिना पहुँचाने की जिम्मेदारी, ग्रुप कमांडर द्वारा बाली के कन्धे पर रखा गया था।

वीरेन्द्र बाली सितम्बर 71 में OTA, मद्रास से pass out हुए थे और 30 सितंबर को एक महीने के कमांडो प्रोबेशन (आजकल इसकी अवधी छह महीने की है ) के लिए 9 पैरा में पहुँच गए थे। यह परिवीक्षा दुनिया भर के सभी देशों के ‘एयरबोर्न फोर्सेज’ में एक महीने से लेकर तीन महीने तक की अवधि तक की होती है, आम तौर पर एक Volunteer की शारीरिक और मानसिक मजबूती को मापने के लिए। स्पेशल आपरेशन बलों में जैसे कि जर्मनी का GSG 9, भारत का NSG और भारतीय वायु सेना का GARUD, कार्मिकों का चयन करने के लिए ऐसी परिवीक्षा करीब तीन महीने का होता है। हालांकि स्पेशल फोर्सेज, अर्थात् ब्रिटिश SAS, अमेरिकन Delta और SEAL, इस्रायल के Sairet Maitkal एक दोहरे उद्देश्य से छः महीने की परिवीक्षा करवाते हैं। पहला उद्देश्य है शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक उपयुक्तता का पता लगाने की कोशिश करना है। यह भी कोशिश की जाती है कि पता चले की किस सीमा तक वे बिना टूटे हुए सभी प्रकार के दवाब को झेल सकता है। दूसरा उद्देश्य होता है यह सुनिश्चित करना कि परिवीक्षा अवधि के अंत तक चुने जाने की संभावना रखने वाले कम से कम स्पेशल फोर्सेज के मूलभूत ज्ञान में पूरी तरह प्रशिक्षित हो जाए। जिससे कि स्पेशल फोर्सेज में शामिल होने पर यदि तत्काल आपरेशन में जाना परे तो वह बोझ नहीं बने बल्कि अपना दायित्व निभा सके।

अगली सुबह का बिना इंतजार के Lt बाली का प्रोबेशन चाय के एक कप के तुरंत बाद शुरू हो गया। अगला एक महीना Lt बाली के लिए पूणॅ नरक समान था। फिर 31 अक्टूबर को दोपहर के आसपास, एडजुटेंट के कार्यालय में, उन्हें एक बड़ा व्याख्यान दिया गया था जिसमें पूरे महीने के दौरान की गई उनकी सभी कमजोरियों और गलतियों को अच्छी तरह से उजागर किया गया था। बाली जैसा बेकार अफसर आज तक नहीं देखा गया था। किसी एक इन्फैन्ट्री यूनिट का अब दुर्भाग्य होगा कि अब अगले पांच साल उसे बाली का साथ भुगतना पड़ेगा। Lt Bali को कहा गया अपने कमरे में जाने को, अपने सामान को पैक करने के लिए, फिर ऑफिसर मेस के बिलों का भुगतान करने के लिए और मैस हविलदार से अपना Movement Order लेने के लिए।

अपने कमरे में पहुंचने पर, उन्होंने पाया कि उनका सामान पहले से ही उनके सहायक द्वारा पैक कर दिया गया था। उसने भी बाली जी को दिलासा दिया कि पैराशूट रेजिमेंट में न चुने जाने से कुछ नहीं होता, पंजाब रेजिमेंट उतना ही अच्छा है। यह जानते हुए कि साहिब का वेतन अभी भी बैंक में नहीं आना शुरू हुआ था, सहायक ने मैस बिल देने के लिए और अपनी नई यूनिट जाने के लिए के लिए यात्रा करने के लिए भी उन्हें पैसे देने की पेशकश की। बाली काफी परेशान नजर आ रहे थे जब वे अधिकारी मेस के लिए अपने कमरे से निकले। मैस लाउंज में प्रवेश करने पर, वहां 9 के सभी अधिकारियों को इकट्ठा देख Lt बाली काफी आश्चर्यचकित हुए। उन्हें देखकर, मेजर राठौड़ ने कहा, “क्या तुम अभी भी यहां हो? ठीक है अब आ ही गए हो तो आओ और सीओ को अलविदा कहो।” सीओ बार में खड़े थे और बाली ने उनका अभिवादन किया। तभी पैराट्रूपर / मैस वेटर बलबीर सिंह अचानक से दिखाई दिए। वह भी अभी हाल में ही पैराशूट रेजिमेंटल सेंटर से यूनिट में शामिल हो गए थे। अगले 25 वर्षों के लिए मानद नायब सुबेदार के रूप में सेवानिवृत्त होने से पहले 9 के अधिकारियों की देखरेख करेंगे। बलबीर सिंह के हाथ में एक ट्रे में एक ग्लास था, जिसमें पटियाला पेग ऑफ़ स्वच्छ रम के साथ था एक मेरून टोपी। Lt Bali को अब 9 का हिस्सा बना लिया गया और वे कमांडर 6 टीम, ब्रावो ग्रुप, 9 पैरा कमांडो नियुक्त हुए।

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GOC के साथ बैठक के बाद मेजर राठौड़ वापस आए। अब चीजें उन्मादी गति से आगे बढने लगी। इस अवसर पर भारतीय वायु सेना के हैलीकाप्टर इकाइयों ने भारी मदद की। सभी अधिकारी, JCOs और अधिकांश हवलदार (उप टीम के कमांडर या अब स्क्वाड कमांडर )। 2 /Lt वीकेबी तो अब वास्तव में इन हेलिकॉप्टर की सवारी का आनंद लेने लगे थे। ‘जालीम सिंह’ ग्रुप इंटेलिजेंस एनसीओ हमेशा उनके साथ होते थे। ज़ालिम का वास्तविक नाम नायक मुखतियार सिंह था, लेकिन उनके “शिकार कौशल “ की वजह से विशेष रूप से जंगली सूअरों के शिकार के कारण उनको जालिम नाम से जाना जाता था। इस प्रकार के नामकरण का एकमात्र विशेषाधिकार था केवल कैप्टन तेज स्वरूप पाठक का। इसके अलावा पाठक पूरे ग्रुप के DISCIPLINARIAN थे। Lt बाली को आईबी / एलसी के लगातार उल्लंघन के साथ साथ हवाई और जमीन की निगरानी का जोखिम भरा काम करने में उतनी घबराहट नहीं होती थी जितनी की Recce के बाद 2IC के Debriefing में। बहुत जल्द सभी अधिकारी, जेसीओ और एनसीओ ने चिकन नेक के अंदर सभी प्रमुख स्थलों को याद कर लिया था। उसके बाद सभी जवानों की बारी थी, जो सैंड मॉडल के माध्यम से ऐसा करने में सफल हुए थे। माडल बनाने का काम जालिम सिंह का और ग्रुप के चैंपियन क्रॉस कंट्री धावक नायक भगवान सिंह का था। इसके अलावा ग्रुप कमांडर की सलाह पर, नेविगेशन पार्टी ने आईबी के उपर भारतीय गांव मचियाल से लेकर चिकन नैक के अंदर सैदपुर फेरी साइट तक के पूरे मार्ग को रट कर याद कर लिया था।

बाली ने बीएसएफ के एक पोस्ट जो सैदपुर फेरी के सामने था वहां दो दिन भी बिताए थे। ज्यादातर समय वे जमीन से 40 फीट ऊपर एक पेड़ पर मचान पर बैठ कर सामने चीकेन नेक क्षेत्र में दूर अन्दर तक निगरानी करते रहे। पूरे समय वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि उन पर भी कोई निगरानी रख रहा था।अंत में एक पाकिस्तानी कैप्टन सामने सीमा के पास आया, और अपना हाथ हिलाया और बाली को आमंत्रित किया खाने पर और साथ में बीयर पीने के लिए।

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05-06 दिसंबर 71 की रात, लगभग 2130 बजे ब्रावो ग्रुप का पाकिस्तानी सीमा में अंदर प्रवेश प्रारम्भ हुआ। एक के पीछे एक की पंक्ति में कमांडोज एक-एक करके अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार करने लगे। अब सामने आने वाला कोई भी एक दुश्मन ही हो सकता है था, जब तक कि वह जल्दी से सही पास वर्ड नहीं बोल देता। 6 टीम घुसपैठ का नेतृत्व कर रही थी। सबसे आगे नायक ओम प्रकाश चल रहे थे और उनके पीछे उनका सब टीम और उसके ठीक पीछे नेविगेशन पार्टी और फिर बाकी 6 टीम।

ब्रावो ग्रुप के अधिकारी वहां उपस्थित थे जब 19इन्फैंट्री ब्रिगेड कमांडर, ब्रिगेडियर मोहिन्दर सिंह ने 5 दिसंबर की सुबह अपनी अंतिम ब्रीफिंग दी थी। खुफिया जानकारी के अनुसार दुश्मन की स्थिति इस प्रकार से थी ……. बार्डर पोस्टों पर रेंजर्स की छह कंपनियां तैनात थीं सीमा के साथ साथ। अन्दर के इलाके में नियमित पैदल सेना के 36 पंजाब बटालियन ने मोर्चा संभाल रखा था। उसकी सहायता के लिए एक या दो टुरप टैंक के थे, मोर्टार का एक बैट्री और कुछ Recce & Support युनिट की टुकड़ियाँ। यह पाकिस्तानी फौज निम्नलिखित क्षेत्रों में रक्षात्मक पद्धति से इस प्रकार लगाई गई थी:

(ए) कोहायरी क्षेत्र … Neck क्षेत्र को कवर करने के लिए

(बी) बाजुआन—-फुकलीयान क्षेत्र ………… प्रमुख सड़क केंद्रों को जो फेरी साईटों पर जा रही थी

(सी) दीवारा—–बजावत क्षेत्र ………… परगोवाल क्षेत्र से किसी भी आक्रमण को रोकने के लिए

(डी) टिब्बा क्षेत्र ………… Chicken Neck के base का बचाव करने के लिए

हमारी हमला करने वाली फौज 19 ब्रिगेड का हिस्सा थे ……..11 GUARDS, 3/5 गोरखा राइफाल्स, 7/11 गोरखा राइफल्स और 8 कैवलरी का एक टैंक स्क्वाड्रन ( 14 टैंक) थे और साथ में लगभग इंजीनियरों की एक पूरी रेजिमेंट थी। करीब 10 आर्टिलरी बैटरियां ( 60 तोप) हमले की मदद के लिए फायर देने के लिए पूर्ण रूप से तैयार थे।

ब्रिगेड की योजना के अनुसार एक बटालियन को टिब्बा क्षेत्र पर कब्जा करना था, जबकि एक अन्य बटालियन घाग नाला के माध्यम से अपना रास्ता बनाकर अंत में गोंडाल फेरी पहुंचना था और उस पर कब्जा करके फिर सैदपुर फेरी में कमांडोज के साथ मिलाप करना था।। उसके बाद तीसरे बटालियन का काम था फुकलीयान क्षेत्र को पूरी तरह मुक्त कराना, यह क्षेत्र CHICKEN NECK इलाके का मुख्य और सबसे चौड़ा इलाका है।

4 दिसंबर को दिन में मेजर राठौड़ 19इन्फैंट्री ब्रिगेड मुख्यालय मे पहुँच गए थे। ग्रुप ने शाम को कैप्टन तेज पाठक के तहत Concentration वाले इलाके के लिए कूच किया और बॉर्डर के करीब 2300 बजे के आसपास मच्छीयाल गांव में पहुंचे। दिन के समय में आराम करते हुए कमांडोज का प्लान था बॉर्डर के पास अपने माईन फील्ड्स को 2030h के बाद ही पार करना। 1965 की लड़ाई के दौड़ान तथा बाद में इन इलाकों में बार-बार माईन लगाए गए थे और हटाए गए थे। इलाके का रेतीला होना, सालाना मॉनसून के समय अनगिनत जल धाराओं का बहना और ऊंचे सरकंडा घास के बढने से माईन फील्ड का मानचित्र एकदम ही भरोसेमंद नहीं थे। हालांकि 3/5 गोरखा के वीर गोरखाओं ने अपनी जान को जोखिम में डाल कर, कमांडोज के लिए उस बहुत ही खतरनाक माईन क्षेत्र को पार करने के लिए एक साफ रास्ता बना दिया था।

पाकिस्तान के अंदर एक किमी चलने के बाद, नदी आ गई। याद रखे हुए भूमि के निशानों के सहारे सही क्रॉसिंग स्थान का पता लगाने में कुछ ही मिनट लगे। इसके बाद ड्रिल के अनुसार, बिना कोई आवाज किए, 6 टीम ने छाती जितनी गहरी, तेजी से बह रही नदी को पार करना शुरू किया। पानी बर्फ बिंदु से कुछ डिग्री ऊपर था। जैसा कि बाद में सुनाया जाता था ‘बड़ा खाना’ के दौरान या प्रशिक्षण के दौरान शिविर की आग के सामने बैठे हुए : पानी बहुत ठंडा था लेकिन हर किसी उसे मानसिक रूप से दिमाग से निकाल दिया था। जमीन के ऊपर घोर अंधेरा था, पर आकाश की रेखा पर चारों ओर दिवाली समारोह था। तोपों के फायरिग की गड़गड़ाहट, मशीन गनों की तड़तड़ाहट, भारत या पाकिस्तान की ओर जाने वाले गोलों की बजाती हुई सीटियां और फिर तोप के गोलों के फटाने की भयानक आवाज़ … सभी को कमांडोज सुन रहे थे और देख भी रहे थे। बिना हिचकिचाहट के वे आगे बढ रहे थे और हर मिनट पाकिस्तान में उनकी पैठ गहरी होती जा रही थी।

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नदी पार करने के बाद, कमांडोज बांए मुड़े और दो किलोमीटर चलने के बाद, दिशा यंत्र पर सीधा सैदपुर के लिए बेयरिंग लगा कर चलना शुरू कर दिया नाक की सीध में। कैप्टन तेज पाठक अपनी पार्टी के साथ 5 टीम से आगे चल रहे थे। सुबेदार तेजा सिंह दधवाल, टीम 2 / IC और वर्तमान में कार्यकारी कमांडर उनके ठीक पीछे चल रहे थे। 1966 में TSP अकादमी से पास होकर 1 पैरा में गए थे। हलांकि वे ’65 युद्ध में नहीं लड़े थे वह एक पक्के स्पेशल फोर्सेज सैनिक थे। लगभग सात साल आगे भविष्य में, आईएमए, देहरादून में हमारे पूरे कोर्स का (62 Regular), इस कमांडो के साथ पहली बार सामना होने वाला था। अब इतने सालों के बाद, मैं अपने पूरे कोसॅ की तरफ से यह कह सकता हूँ कि शुद्ध TERROR थे !! इस चीज को अमेरिकी स्पेशल फोर्स टीम द्वारा भी प्रमाणित किया गया था जब वे संयुक्त प्रशिक्षण के लिए मध्य नब्बे के दशक में पहली बार भारत आए थे।

तेज पाठक ने घने अंधेरे में चलते हुए महसूस किया कि वे एक छोटे से घाटीनुमा इलाके में उतरे हैं जो सरकंडो से भरा हुआ था।फिर जैसे ही वे ऊपर निकले वह जगह केवल घास का बहुत छोटा मैदान था। तभी अचानक बगल से 15-20 गज की दूरी पर एक 5आदमियों की टोली भी निकली।वे धीमी आवाज में बातचीत कर रहे थे। तेज पाठक ने दबी आवाज में उनको चुप रहने के लिए डांट लगाई। फिर अचानक उन्होंने गौर किया कि उसने जो शब्द सुना है वह उर्दू भाषा का था ! इसके साथ ही 2 IC पार्टी के कुछ अन्य लोगों को भी यही एहसास हुआ। कमांडोज रेंजरों की तुलना में तेज साबित हुए। पाठक और दो और कमांडोज ने अपने साइलेंसर कार्बाइन से फायर निकाल दिया और यह रेंजर गश्ती दल का अंत था। उनमें से केवल एक ही वापस फायर कर पाया था लेकिन वह भी हवा में ही था। पूरा Group जमीन पर लेट गया था। Group कमांडर को लगभग 5 मिनट लग गए कमांड और कंट्रोल हासिल करने में। पहले रेडियो के माध्यम से आदेश और फिर कम्पनी हवलदार मेजर रत्ती राम द्वारा चारों ओर घूमकर। वह हर एक सबटीम से रिपोर्ट ले रहा था और उसकी बड़बड़ाहट पूरे भारत से पाकिस्तान तक गूंज रही थी। परी चेकिंग के बाद उसने वरिष्ठ जेसीओ सुबेदार बलदेव सिंह को,फिर 2/IC को और अंत में ग्रुप कमांडर को रिपोर्ट दिया। फिर टोली आगे चल परी।

6 दिसंबर को 1:00 बजे तक, कमांडो बेस की स्थापना सैदपुर फेरी से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर एक उठी हुई जमीन पर हुई जो कि लंबे सरकंडों द्वारा अच्छी तरह से ढका हुआ था। फेरी साइट पर कब्जा करने के लिए तुरंत 6 टीम रवाना हो गई। अंतिम 200 मीटर के करीब पूरी टीम जमीन पर रेंग रही थी। बाली और उनके लड़ाके फेरी साइट पर दुश्मन के मोरचे का 50 गज से भी नजदीक से करीब 10 मिनट तक मुआयना करते रहे। देखने के बाद, सभी कमांडो ने पूरे 3 मिनट के लिए फायर खोला और जारी रखा।। दुश्मन स्तब्ध हो गया।। उनकी तरफ से कुछ छिटपुट फायर आया। सटीक जवाबी कार्यवाई ने उन्हें हमेशा के लिए चुप कर दिया। 0300h तक, 06 दिसंबर के पौ फटने तक, सैदपुर फेरी पर भारत के भौतिक नियंत्रण में था। एक रेंजर इंस्पेक्टर ने अपने सात जवानों के साथ पाकिस्तान की रक्षा में अपना जीवन न्योछावर कर दिया था; बाकी अंधेरे में गायब हो गए थे।

करीब दो घंटे बाद काछी मंडल की तरफ से एक अन्य रेंजर पेट्रोल आता दिखा। पीछे की ओर लगी मशीन गन सेक्शन ने उन्हें देखा। नायक मिल्कियत सिंह और लांस नायक अनंत राम चारों रेंजरों का कुछ मिनटों तक इंतजार करते रहे। रेजर पैट्रल ने भी उनको देखा पर उन्हें फेरी साइट के रेंजर समझते हुए उन्हें क्षेत्र में भारतीय सेना के घुसपैठ की चेतावनी दी। नजदीक आते ही सभी चार क्षणों में मारे गए।

फेरी इलाके पर कब्जा करते ही, नदी के पार से दुश्मन ने छोटे हथियारों से भारी मात्रा में फायरिग किया। उसके बाद पाकिस्तान द्वारा बहुत भारी मात्रा में तोप की गोलीबारी भी हुई। मेजर संधू, 216 मध्यम रेजिमेंट के तोपखाना अधिकारी, इस अवसर पर पहुंचे। उन्होंने नदी के ऊपर स्थित पाकिस्तानी ठिकानों पर बहुत सटीक और भारी गोलाबारी करवाई। 0445 तक दोनों फायरिंग और गोलाबारी पूरी तरह से बंद हो गया। फिर जल्द ही शुरू हो गया सिविलियनस का पलायन। जल्द ही पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की भीड़ फेरी साइट पर पहुंचने लगी। जिमी ने एक तुरंत और सही निर्णय लिया और नागरिकों को पार करने की अनुमति दे दी गई। अब किसी भी तरफ से फायरिंग की कोई संभावना नहीं थी।

Lt बाली ने खुद को एक कंबल में लपेट कर, एक पत्थर का सहारा लेकर झपकियां लेते हुए सोने की कोशिश मे लगे थे। सेकंडस के भीतर वह नई दिल्ली में अपने कालेज के दोस्तों के बीच थे। सभी लड़कों और लड़कियों की कालेज के कैफे में एक पार्टी चल रही थी।फिर अचानक वह फेरी साइट पर वापस थे। उनके ठीक सामने एक अधेर उम्र का आदमी था और उसके साथ थी एक सुन्दर सी युवती। दोनों को Billa ने अपने हथियार से कवर कर रखा था। सुबह की रोशनी होने लगी थी। ये दोनों मोटर साइकिल पर थे और पाकिस्तानी सेना के चिह्नों वाले बैग उनके पास था और इसलिए दोनों को पकड़ लिया गया था। जब बाली ने उनसे पूछ ताछ की तो पता चला कि रेंजर कंपनी कमांडर के बंकर में लड़की “एक स्थायी अतिथि” के रूप में रह रही थी और अब युद्ध के भय से सियालकोट वापस जा रही थी। लड़की डर से कांप रही थी और अपने प्राण रक्षा की भीख मांगने लगी। उस लड़की ने युवा लेफ्टिनेंट से कहा कि वह उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थी। यह सुन Lt Bali का गोरा चेहरा निकलते सूरज की लालिमा से भी ज्यादा लाल हो गया। पास में खड़े कमांडोज चाह कर भी अपनी हंसी नहीं रोक पाए और ना रोकने की कोशिश की। बिल्ला ने शायद कुछ और प्लान बना रखा होगा लेकिन Lt ने हुक्म दिया कि अगले कुछ मिनट में ही दोनों को इस सबसे हाल ही में अभिग्रहीत भारतीय भूभाग से बाहर कर पाकिस्तान भेज दिया जाये।

19 ब्रिगेड के साथ लिंक अप 06 दिसंबर के सुबह पहली किरण निकलते ही होनी थी। 0700 बजते जिमी अपने ब्रावो ग्रुप के साथ बेचैनी से इंतजार कर रहे थे। केवल एक बात का संतोष था कि इस समय तक, वे 3/5 गोरखा राइफल्स की D कंपनी के संपर्क में आ चुके थे। मेजर मलिक की कमान के तहत यह कंपनी रात के बाद के हिस्से में, कमांडोज द्वारा लिए गए रास्ते का इस्तेमाल करते हुए, नदी पार करने के बाद BEAK क्षेत्र की ओर मुड़ गया था। उसके बाद उन्होंने सही जमीन का चुनाव कर मोर्चा संभाल लिया। पहली किरण के निकलने के बाद उनके एक गश्ती दल ने BRAVO Group के साथ संपर्क स्थापित किया था।

करीब 0730 बजे में, सड़क पर L BEND के पास स्थित 6 टीम के स्काउट्स ने पूर्व दिशा से (भारत की ओर से) से एक जीप की आवाजाही की सूचना दी। नजदीक आने पर पाक सेना के निशान स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे। नजदीकी लाइट मशीन गन से लंबे burst फायर ने वाहन के चालक को बुरी तरह घायल कर दिया और गाड़ी एक जगह रुक गई। एक रेंजर के मेजर साहब खुद गाड़ी चला रहे थे और अब बुरी तरह से घायल हो गए थे जबकि उनके पास बैठा जवान तुरन्त मर गया। घायल अधिकारी को वाहन से बाहर निकाला गया। उन्होंने पानी मांगा जो उन्हें तुरंत दिया गया। एक शेल ड्रेसिंग उनके घाव पर बाँधा गया लेकिन खून बहना नहीं रुका। कुछ ही मिनटों में उनकी मौत हो गई।

1000 बजने थोड़ी देर पहले, जिमी से पहले डिवीजनल मुख्यालय ने संपर्क किया रेडियो पर और उसके बाद 19ब्रिगेड के स्टाफ ने संपर्क किया। उन्हें तुरंत 6 किलोमीटर दूर गोन्डाल फेरी की सुरक्षा के लिए अपनी एक टीम को भेजने को कहा गया। इसी कारण गोंडाल फेरी पर 2 / Lt शशी खन्ना के नेतृत्व में 4 टीम का आपरेशन हुआ।

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3/5 गोरखा राइफल्स की एक कंपनी अंततः 1000 के आसपास सैदपुर फेरी पर पहुंच गई और कमांडोज के साथ मिलाप किया। लगभग एक घंटे बाद 8 कैवलरी स्क्वाड्रन के टैंक फेरी साइट की ओर आते दिखे। गोरखाओं की एक टोली उनसे मिलाप करने के लिए आगे बढा। सबसे आगे वाले टैंक ने एकाएक अपनी मशीन गन से फायरिंग शुरू कर दी। चालक दल ने शायद खाकी डांगरी पहने हुए कमांडोज को दूर से पाकिस्तानी समझ लिया। एक दो गोरखा सैनिक घायल भी हो गए, यह देख उन्होंने भी जवाबी फायरिग शुरू कर दी। स्थिति को नियंत्रण में लाना मुश्किल हो गया। किस्मत से उसी समय 3/5 के कर्नल साहब पीछे से टैंकों के पास पहुंचे। गोरखा सीओ के समय पर आगमन से दोनों तरफ की फायरिग बन्द हुई और उग्र कंपनी कमांडर और उनके जवानों को शांत किया जा सका।

अगले दिन तक सैदपुर फेरी साइट पर कोई और कार्रवाई नहीं हुई। 07 दिसंबर को सूर्योदय के एक घंटे बाद में, पाकिस्तानी सेना का एक टोही विमान L 5 उड़ान भरता हुआ आया। यह फेरी साइट के ऊपर से गया और फिर तेजी से मुड़ कर लगाकर वापस चला गया। 30 मिनट के बाद, एक आ रही जेट की आवाज़ स्पष्ट रूप से सुनाई देने लगी। मिनट में PAF का एक MIG 19 तेजी से फेरी साइट के बाएं किनारे से गुजरा गया और कुछ मिनट बाद ही फिर से वापस आया। इस बार काफी कम ऊंचाई और धीमी गति से। पायलट का चेहरा को स्पष्ट रूप से दिख रहा था और उसने भी जमीन पर खाकी ड्रेस पहने लोगों को देखा होगा। उसने फिर से अपने जेट को मोड़ा वापसी के लिए। लेकिन तब तक वह 3/5 गोरखा की D कम्पनी के ऊपर था। गोरखाओं की एक लाइट मशीन गन हवाई फायर के लिए तैयार थी (यह भारतीय सेना का ड्रिल था ) और उसने तुरंत फायर किया और एक जेट में काफी गोलियां लगी। जेट कहीं पाकिस्तान में दुर्घटना ग्रस्त हो गया, लेकिन फ्लाइंग ऑफिसर आज़मल जो D कंपनी और BRAVO ग्रुप के बीच में उतरे थे, जब तक वह अपना पैराशूट खोल कर घुटने भर पानी से निकले एक पार्टी उनका स्वागत करने के लिए वहां खड़ी थी वे एक युद्ध कैदी बन चुके थे। युद्ध विराम के कुछ दिन बाद, सैम बहादुर ने 3/5 गोरखा राइफल्स का दौरा किया और मिग बहादुर के साथ हाथ मिलाया।

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07 दिसंबर की शाम तक फुकलियान Salient को पूरी तरह से दुश्मन मुक्त कर दिया गया था। हालांकि रात में दुश्मन ने एक बार फिर सैदपुर फेरी साइट पर नदी पार करने का प्रयास किया। कमांडोज द्वारा भारी मात्रा में मध्यम मशीन गन की आग ने प्रयास को त्यागने के लिए उन्हें प्रेरित किया।

08 दिसंबर को, 4 टीम सैदपुर फेरी पर वापस आ गई थी। 9 दिसंबर की सुबह ग्रुप ने अखनूर-दमाना राजमार्ग के सबसे निकट स्थान पर पहुंच ने के लिए कूच किया। 6 टीम फिर सबसे आगे था। जालिम और बिल्ला आधे किलोमीटर के अन्दर फिर कुछ नए पाकीयों को युद्ध कैदी बना लिया …ये थे 5 गदहे जिन पर गुड़ के बोड़े लदे हुए थे। कुछ ही मिनटों में कमांडोज सारे कुछ गुड़ सफाचट कर गए थे। कैदियों को साथ में लेते हुए, जिनेवा कन्वेंशन के सीधे उल्लंघन में अधिकारियों और ग्रुप के JCOs के Rucksack को उनके ऊपर लाद दिया गया।

अंत में दोपहर के आसपास वे दमाना के नजदीक सड़क पर पहुंच गए। वहाँ वे गाड़ियों के आने की प्रतीक्षा करने लगे। तभी स्थानीय लोग की भीड़ बड़े उत्साह के साथ पूरे ग्रुप के लिए पूरी, हलवा, अंडे और चाय के साथ वहाँ पहुँचे। सारे कमांडोज भोजन पर इस तरह टूट पड़े कि ऐसा हमला तो पाकिस्तानियों को ऊपर भी नहीं हुआ था। रिकार्ड बताते हैं कि मात्र 55 किलो के Lt बाली ने अकेले 10 अंडे खाए थे बाकी चीजों के अलावा। शाम 9 दिसंबर तक, BRAVO ग्रुप जम्मू हवाई अड्डे में एक बार फिर केंद्रित था।

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12 दिसंबर के 1100 बजे तक BRAVO ग्रुप नाथू टिब्बा इलाके में पहुंचा। यह जगह छम्ब क्षेत्र में मुन्नवर तवी के पश्चिम में, मंडीयाला के करीब 6 किमी उत्तर में है। 8 जम्मू और कश्मीर मिलिशिया की एक कंपनी (युद्ध के बाद यह मिलिशिया जम्मू काश्मीर लाइट इन्फैन्ट्री रेजिमेंट बन गया) ने यहाँ पर मोरचा संभाला हुआ था। जम्मू से इस जगह आते वक्त, BRAVO ग्रुप जो शायद अब पाकिस्तानियों को पूरी तरह से निकम्मा समझने लगे थे और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए रास्ते में अखनूर ब्रिज के पास चाय बनाने के लिए ग्रुप ने अपनी गाड़ियों को रोक दिया। कमांडोज के लिए यह निःसंदेह UNPROFESSIONAL था। एकाएक पाकिस्तानी सेबर जेट की एक जोड़ी ने उनके ऊपर से Strafing पास किया।। सौभाग्य से किसी को कुछ भी नहीं हुआ। Tlbba पहुंचने के बाद, शेष समय 4, 5 और 6 टीमों द्वारा क्रमशः केरी, घोपर और चाकला क्षेत्र में Recce और अवलोकन करने में बिताया।

प्रत्येक टीम को 13 दिसंबर की रात के लिए अपने संबंधित क्षेत्र में एक “खोज और बरबाद “ मिशन के लिए भेजा गया।

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कैप्टन अनिल कुमार वर्मा, जो चिकन नेक कार्रवाई में शामिल नहीं हो पाए थे, अब दुश्मन से दो दो हाथ करने के अत्यन्त ही इच्छुक थे। जून 196 9 में उन्हें सीधे आईएमए से 9 में नियुक्त किया गया था। नवंबर के मध्य में उन्हें एक कोर्स के लिए भेजा गया था अतः वे 06 दिसंबर की सुबह को ही दमाना पहुंच पाए थे। फिर 3/5 गोरखा की पार्टी के साथ वे 7 दिसंबर को सैदपुर फेरी साइट तक पहुंचने में सफल रहे और 5 टीम का कमान संभाला।

अपने 5 टीम के साथ दुश्मन की रेखा के पीछे तकरीबन एक घंटे तक घूमते रहने के बाद कैप्टन वर्मा को टैंकों के चलने की आवाज सुनाई दी। करीब 30 मिनट के बाद, उस इलाके मे पहुंच कर नजदीक से निरीक्षण के बाद उन्हें दो रोड रोलर्स और दो छोटे ट्रक मिले पार्क किए हुए। यह संभवतः एक सड़क मरम्मत दल था जिसमें सिवीलियन कर्मचारी थे। कमांडोज को देखकर वे अंधेरे में भाग खड़े हुए। टीम ने जल्दी से वाहनों पर पेट्रोल और रोलर इंजन पर विस्फोटक लगा दिया। तभी 4 और वाहन स्थान पर पहुंच गए। वे मोर्टार राउंड सहित और भी गोला बारूद ले जा रहे थे। उनके एनसीओ के साथ चार पाकिस्तानी सेना के वाहन चालकों का कमांडोज ने तेजी से सफाया कर दिया गया। उनमें से केवल एक ही अपने हथियार से कुछ राउंड फायर करने में कामयाब रहा था। इन वाहनों पर भी जल्दी से विस्फोटक लगाए गए और टीम ने वापसी शुरू कर दी। चलने के दस मिनट बाद, एक-एक करके, 8 वाहनों के धमाके सुनाई दिए और साथ-साथ मोर्टार के कुछ राउंडों के फटने की भी आवाज आई।

अन्य दो टीमों मध्यरात्रि तक दुश्मन के इलाके से निकल कर वापस अपने इलाके में बेस पर पहुंच गए। उन्हें कहीं कुछ हाथ नहीं लगा था। कैप्टन अनिल वर्मा और उनकी 5 टीम अंततः: वापस 8 जम्मू और कश्मीर मिलिशिया के कंपनी इलाके में 0200h के आसपास पहुंची। कंपनी कमांडर ने अपने बंकर में उनका स्वागत किया उन्होंने कंपनी के स्थान तक पहुंचने के लिए कमांडोज द्वारा लिए गए मार्ग के बारे में पूछताछ की। विवरणों को सुन कर, उनके चेहरे की रंगत देखने लायक थी। मेजर साहब ने तुरंत दो तगड़े सरदारों को स्टोर बंकर से एक खास बक्से को लाने के लिए कहा। बकसा बहुत ही बेहतरीन स्कॉच शराब से भरा था। उन्होंने कहा…… हमने कल ही उस मार्ग पर पांच हजार से अधिक माईन को लगाया और आप 33 कमांडोज बिना खरोंच सभी माईनों के बीच से निकल आए। अतः इस बात के लिए एक एक जाम पीना तो बनता ही है।

15 दिसंबर 1971 की रात में, दुश्मन की सीमा के पीछे एक बार घुसपैठ किया गया जिल्ला के निकट दुश्मन के गन पोजिशन को बरबाद करने के लिए। पर घुसपैठ के शुरूआत करते ही किसी का पैर एक टिपृ वायर से टकराया। उसके बाद चारों ओर से फायरिग होने लगी और दीवाली शुरू हो गई। कमांडोज को वापस आना पड़ा। सीज फायर 17 दिसंबर को घोषित की गयी और युद्ध समाप्त हो गया।

तो यह है कहानी कि चिकन नेक को किस प्रकार मड़ोड़ा गया था। लेकिन जनरल जोरू का सियालकोट की तरफ कूच करने का सपना विभिन्न कारणों से अमल में नहीं लाया जा सका। 2 /Lt शशि खन्ना को छोड़कर ब्रावो Group के किसी भी सदस्य को परे युद्ध में खरोंच तक नहीं आई। शायद इसीलिए सेना मुख्यालय से लेकर नीचे तक सभी लोग BRAVO ग्रुप को THANK YOU कहना भी भूल गए। एक अमेरिकी मरीन ने एक बार कहा था, “आपको WOUND MEDAL जीतने के लिए किसी भी बेवकूफ जनरल की अनुशंसा की आवश्यकता नहीं होती है”। अतः सेना मुख्यालय को शशी खन्ना के लिए एक WOUND MEDAL देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। रक्षा मंत्रालय को भी 120 PASCHAMI STAR टकसाल से बनवाने पड़े ब्रावो ग्रुप के लिए और साथ में देना पड़ा ऑपरेशन कैक्टस लिलि मैडल क्योंकि यह सभी को दिया जा रहा था।

कहानी को दिया गया नाम मेरा नहीं है। 1980 में किसी युद्ध अभ्यास के दौरान उधमपुर में B Company 3/5 गोरखा राइफल्स के अफसरों ने हमारे मेजर एस के मेहता, BRAVO ग्रुप कमांडर, कैप्टन शशी खन्ना 2 IC और हम टीम कमांडरों ( 2/Lt भूपेश जैन और Lt अवधेश कुमार) से संपर्क किया। उन्होंने चिकन नेक ऑपरेशंस के लिए दोनों Company/Group के आपसी सहयोग के लिए एक छोटा सा लेकिन बेशुमार कीमत रखने वाला तमगा दिया। स्मृति चिन्ह पर लिखा था ” TO THOSE WHO WRUNG IT BUT NEVER SUNG IT ……CHICKEN NECK OPERATIONS 1971”। जिन्होंने भारतीय पैराशूट कमांडोज के इस गाथा को पसंद किया है, वे अगली कहानी की प्रतीक्षा कर सकते हैं।